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Sunday, April 20, 2025

ज्वालामुखी और नदी



दियों से समंदर के किनारे, एक ज्वालामुखी गर्म होकर अपनी चरमपर, ज्वालायें बरसा रहा था। जब तूफान आता, तो समंदर ज्वालाओ को ठंडा करने के लिए, अपना पानी उछाल उछाल कर उसपर ले जाता। हवा के झोंकों ने भी, कई बार उन लहरों को उठाकर जलती लपटों को बुझाना चाहा, परंतु ज्वालायें मानो जिद्दी होकर, खुदको पानी से दूर करती रही। जैसे उन्हें नफरत हो समंदर के पानी से। उन्हें खुदको जलाना मंजूर था, पर खारे पानी से बुझना नहीं।
ज्वालामुखी का यह भयावह नज़ारा देख कर, पास में डटा पहाड़ बोल पडा,
"कब तक पानी से दूर रहोगे? बुझालो अपने आपको ! जितना जलोगे, लपटे उतनीही गहरी होकर अंगारे बरसाएगी। मान लो मेरी बात, जिद छोड़ दो। देखो मेरी तरफ, मैंने कैसे इस समंदर के पानी में अपने आपको झोंक दिया है। कितनी ठंडक है इस पानी में। काला पत्थर बनकर शान से पडा हूँ। तुम भी अनुकरण करो। बन जाओ मेरे जैसे।"
यह सुनकर अपनी जलती लपटों को संवारकर, ज्वालामुखी हसकर बोलने लगा।

"देखो, मुझे पानी से नफरत नहीं है, पर इस समंदर के खारे पानी से, मैं बुझना नहीं चाहता। मैं तो उस मीठी धारा के इंतजार में हूँ, जो उत्तर की ओर से इस समंदर में समाने आने वाली है। मैंने उस नदी को, और उसकी मीठी धारा को, कभी देखा नहीं है। पर उसकी आने की आशा से ही ठंडक की अनुभूति पा लेता हूँ। मुझे पता है, की वह नदी ज़रूर आएगी। जब रात को सब शांत होता है, तो मैं उसके आने की आहट महसूस कर पाता हूँ। उसकी बहती धाराओं की आवाज सुन पता हूँ। उसकी आवाज में खडखडाहट छुपी है, पर वह मुझे, इस मुश्किल समय में, कोयल के गीतों समान भांती है। वह समंदर के पानी जैसी एकही जगहपर उछलती नहीं । बल्कि, अनगिनत पत्थरों, कंकड़ों को काटकर, बड़े दूर से बहती आ रही है। रास्ते में उसके किनारे कई नगर बसे हुए है। उन सबकी प्यास बुझाकर, खेत खलियानो को नहलाकर समंदर के आग़ोश में समाने आ रही है।"
 
यह सब सुनते ही, पहाड बोल पडा।
"देखों दोस्त, में तुम्हारे स्वप्न को तोडना तो नहीं चाहता। पर मैंने सुना है, उसका रास्ता इतना लम्बा है की वह धूप की वजह से कईबार बिच में ही सुख जाती है।

तब ज्वालामुखी बोला।
“मुझे उसका इंतजार रहेगा ! अगर नहीं आई, तो उसके मधुर सुरों से खुदको समझा लूंगा”.
यह सुनकर पहाड फिर बोला। “मैंने तो यह भी सुना है की, वह आते आते मैली हो जाती है। क्या तब भी, तुम उसे पसंद करोगे ?" "हाँ, क्यों नहीं ! उसका मैलापन तो बाहरी है। आज भी वह पवित्र गंगा बनकर पूजनीय है।" नदी बोली।
 
सदियों बाद, जब नदी समंदर से मिलने आने लगी, तो उसने जाना की ज्वालामुखी उससे क्या ख्वाहिश लगा बैठा है।
उसी वक्त आकाश में सूर्य की तपती किरणों ने पूछा, "हे नदी, बताओ तुम कहां जाना चाहती हो? समंदर में विलीन होकर विशाल बनना चाहती हो, या फिर मेरे गर्मी से भाप बनकर इस खुले गगन में उडना चाहती हो।" नदी ने कहा, “हे सूर्य, मुझे आप भाप बनाकर उडा लो और एक बडासा बादल बनाकर समंदर के किनारे ज्वालामुखीपर बरसा दो। ताकि, उसकी गुजारिश पूरी हो सके।
 
सूर्य ने कहा, क्योँ तुम विशाल समंदर में नहीं जाना चाहती ? तो नदी ने कहा समंदर को मेरी जरुरत नहीं है, वह खुद ही इतना विशाल है, की मेरे होने ना होने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। पर यह ज्वालामुखी अगर नहीं बुझा, तो सदियोंतक ऐसा ही जलता रहेगा, क्योंकि उसे बस मेरे मीठे पानी का इंतजार है।"

- Ranmoti /रानमोती

Friday, April 18, 2025

मैं सकल शब्दमय, काली हूँ !


हे आसमां, तू और मैं, एक जैसे ही तो हैं। मुझे पसंद है तेरा चाँद, तेरा सूरज, तेरे तारे, तेरा रात का अंधेरा और दिन का उजियाला। मुझे पसंद है तेरा खुलापन, तू हर वक्त चलता रहता है, फैलता रहता है। तेरी कोई सीमा नहीं, तू बंधनों में बंधा नहीं है। तेरी विशालता मेरी आँखों में समाती नहीं, पर तूने मुझे पूरी तरह ढक लिया है। तू साया भी है, और छाया भी। जब इस धरा के, दुख देखकर, तेरी आँखें नम होती हैं, तो वे बादल बनकर, इस प्यासी ज़मीन पर बरसती हैं। तू मुक्ति है, और मैं बंधन। एक दिन, यह धरती फट जाएगी, सब कुछ इसमें समा जाएगा। ये पेड़, ये पौधे, ये इंसान, ये जानवर, सब राख बनकर उड़ जाएँगे। पर तू… तू हमेशा रहेगा। मैं, सकल शब्दमय, काली हूँ, और उसकी हुंकार के रूप में, स्वर ओम, भी हूँ। यह ब्रह्मांड, और यह स्वर, दोनों मिलकर, एक हो जाएँगे । आपस में घुल जाएँगे, मिल जाएँगे। हे आसमां, तू और मैं एक जैसे ही तो हैं। मेरी असीमता, तुझ में जुड़ जाती है। तेरे और मेरे बीच की दीवारें टूटकर जो रास्ता बनता है, वो अनदेखा है, पर है। तेरे संग जुड़ने का, यह अनोखापन, इतना प्यारा है, की जब कभी मौत डराने आ भी जाए, तो फिक्र कहाँ! क्योंकि मुझे पता है — हे आसमां, तू और मैं एक जैसे ही तो हैं।

- रानमोती / Ranmoti

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